सब पर पड़ी कोरोना की मार


कोविड ने गरीबों को बेकारी से ज्यादा मारा है. पिछले मार्चअप्रैल 2020 में जब कारखाने बंद हुए और इस बार फिर जब दोबारा बंद होने लगे तो लाखों की नौकरियां या धंधे चौपट हो गए. फर्क तो अमीरों को भी पड़ा जिन की बचत खत्म हो गई पर वे सह सकते थे. उन्हें भी दर्द झेलना पड़ा क्योंकि वे इस के आदी नहीं थे. आम गरीब के लिए तो यह रोज की बात है.

माहमारी किसी को भी हो सकती है और इसलिए यह सरकार को मुफ्त देनी होगी. मुफ्त का मतलब सिर्फ इतना है कि सब थोड़ाथोड़ा पैसा टैक्स की शक्ल में देंगे.

इस बार माहमारी ने अमीरों को भी डसा है. कोविड ने लगता है कि अमीरों को ज्यादा बिमार किया है जो वायरस से मुकाबला करना नहीं जानते. जो पहले से गंदे मकानों, गंदी सडक़ों, गंदे पाखानों, गंदे कपड़ों के आदी है. उन्हें यह रोग या तो पकड़ नहीं पाया या फिर बिना पहचान कराए वे बिमार पड़े, मरे या ठीक हो गए पर अस्पताल नहीं गए, सरकारी नंबरों में शामिल नहीं हुए.

यह गनीमत है कि देश में जगहजगह अस्पताल बन चुके हैं. 2014 के बाद तो मंदिर ही बने रहे है पर पहले धड़ाधड़ स्कूल और क्लिनिक बने थे. गांवों कस्बों में स्कूलों को अस्पतालों की तरह इस्तेमाल करा जा रहा है और जो भी दबा मिल रही है वह ले कर बचने की कोशिश हो रही है. यह पक्का है कि दिल्ली में बैठी नरेंद्र मोदी की सरकार ने जिस हल्के से इस बिमारी का गरीबों पर पडऩे वाले असर को लिया, वह बेहद खलता है.

 बिमारी किसी को भी हो सकती है और इसलिए यह सरकार को मुफ्त देनी होगी. मुफ्त का मतलब सिर्फ इतना है कि सब थोड़ाथोड़ा पैसा टैक्स की शक्ल में देंगे. हर गांव कस्बे में एंबूलेंस और अस्पताल होने चाहिए चाहे केंद्र सरकार के हों, राज्य सरकार के या पंचायक के. जब थाने हर जगह बन सकते हैं तो हस्पताल क्यों नहीं. शायद इसलिए कि थानों के जरिए लोगों पर राज किया जाता है और अस्पताल में सेवा करनी हाोती है. सरकार के दिमाग में कहीं यह कीड़ा बैठा है कि वे राज करने के लिए हैं, लूटने के लिए, मंदिरों की तरह लेने के लिए हैं, किसी को कुछ देने के लिए नहीं.

अस्पताल खोलो तो नेताओं की मुसीबत आती है. शिकायतें शुरू हो जाती हैं कि डाक्टर समय पर नहीं आते, सफाई नहीं होती, दवाएं चोरी हो रही हैं, जगह कम है. थाना खोलो तो कोई शिकायत नहीं. पुलिस वालों का डंडा सबको ठीक कर देता है.

नरेंद्र मोदी की सरकार वैसे भी उस पौराणिक सोच पर चलती है कि एक बड़े हिस्से का काम सेवा करना है. कुछ पाना नहीं. हमारे पुराण कहीं भी गरीबों को दान देने की बात करते नजर नहीं आते. फिर कोविड जैसी बिमारी के लिए बेकारी के लिए या बिमारी के लिए दान की उम्मीद करना ही बेकार है. देश भर में गरीब यह मांग कर भी नहीं रहे. शहरी लोग ही औक्सीजन, वैंटीलेटर, बैड, रेमेडिसिवर को हल्ला मचा रहे हैं.

लेकिन यह न भूलें कि कोविड ने देश को 10-15 साल पीछे धकेल दिया है. सरकार टैक्स चाहे ज्यादा वसूल ले पर आम जनता गरीब हो गई है और गरीब और गरीब हो गया है. वह कोविड से चाहे मरे या न मरे खराब खाने और बेरोजगारी से जरूर मरेगा.